राग तत्व पर एक नज़र
निराकार आकृति से कलाकृति तक
प्रस्तावना
हिन्दुस्तानी संगीत की
सर्जन प्रक्रिया राग तत्व के आधीन होती है. राग तत्व एक निराकार आकृति है. इस
कारण, हिन्दुस्तानी संगीत की सर्जन प्रक्रिया को एक अप्रत्यक्ष तत्व के
प्रत्यक्षीकरण का वर्णन दे सकते हैं. The “formless
form” of the Raga is translated into a communicable form. यह प्रत्यक्षीकरण प्रक्रिया – अर्थात कलाकृति की
निर्मिती -- कलाकार के संकल्पाधीन होती है. संकल्पाधीन प्रक्रियाओं के अंतर्गत इस
निराकार आकृति का हमें विभिन्न आधीनताओं के अंतर्गत साक्षात्कार होता है. परिणामतः
हमारा संगीतात्मक अनुभव प्रबंधाधीन है, लोकाचाराधीन है, रचनाधीन है, काव्याधीन है,
लय-आधीन है, और तालाधीन है. जाहिर है कि प्रत्येक आधीनता का परिणाम हमारे रागानुभव
पर विशिष्ट प्रकार का होगा. इस दृष्टि से मैं समकालीन गायन प्रबंधों के कुछ अंगों
तथा उपांगों पर विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ.
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आधीनताओं के दर्जे |
राग संगीत कला का संतोषजनक वर्णन
सौन्दर्य शास्त्र में संगीत
को Expressive Art अर्थात अभिव्यक्ति प्रधान कला कहा गया है. अन्य मतानुसार उसे Communicative
Art अर्थात श्रोतोंमुख तथा प्रतिक्रिया उत्तेजक कला
भी कहा गया है. राग संगीत के सन्दर्भ में एन दो मतों में परस्पर विरोध प्रतीत नहीं
होता. परन्तु, क्योंकि राग-तत्त्व एक निराकार आकृति है, हमें इन वर्णनों के
अतिरिक्त एक और वर्णन को लक्ष्यान्वित करना होगा. राग संगीत एक Contemplative
Art अर्थात एक
आध्यात्मिक कला भी है. जबतक हम राग संगीत की बहिर्मुखी, व्यक्तित्व-निर्भर और
अंतर्मुखी तीनों पहलुओं को समाविष्ट नहीं कर लेते, तब तक उसका वर्णन व्यापक नहीं
हो सकता.
राग तत्व – एक निराकार
आकृति
राग तत्व एक आकृति है – इस
में कोई संदेह नहीं. प्रत्येक राग के स्वर निश्चित हैं, उनका प्राबल्य निश्चित है,
उनका उपयोग क्रम निश्चित है. इन संकेतों के आधार पर अन्य रागों से उसकी भिन्नता और
समानता को समझा जा सकता है, तथा उसे पहचाना जा सकता है. परन्तु उसे हम आकृति नहीं
कह सकते क्योंकि रागकी पुनरावृत्ति असंभव है. कोइ भी संगीतकार खुदकी एक राग
प्रस्तुति को भी हुबहू, सूक्ष्मतम रूप में दोहरा नहीं सकता. जिसकी पुनरावृत्ति
असंभव हो, उसे निराकार ही मानना पड़ेगा.
“इष्ट राग” की भावना /कल्पना
जब हम साकार और निराकार की
सीमारेखा पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तो अनायास ही देवी-देवताओं की उपमा उचित
लगती है. उदाहरण के तौर पे भगवान् विष्णु के बारे में सोचिये. श्री हरी विष्णु
निराकार हैं. उनका व्यक्तित्व अप्रत्यक्ष है; मानव इन्द्रियों और मस्तिष्क के
लिये अगम्य तथा अलभ्य है. परन्तु उनकी आराधना के लिये, कोई भी कलाकार या शिल्पकार
अपनी कल्पना के अनुसार, और शरणागत भाव से उन्हें एक विशिष्ट आकृति में अवतरित
होने का आह्वान करता है. देवी-देवताओं में और राग तत्व में यह समानता है. इसलिए
हमारे कई ग्रंम्थों में प्रस्तुत राग को “इष्ट राग” कहा गया है. "इष्ट" शब्द के अन्य अर्थ भी हैं. परन्तु, अन्य अर्थो को ध्यान में रखते हुए भी एक दैवी कल्पना का औचित्य व्यापक प्रतीत होता है.
आराधना हेतु किसी भी
देवी-देवताकी आकृति का समकालीन समाज के लिये सुगम्य और सुलभ होना आवश्यक है. अतैव
यह स्वाभाविक है की श्री हरी विष्णु का सर्वमान्य स्वरुप देश काल के अनुसार बदलता
रहेगा. इसी प्रकार रागों के सर्वमान्य स्वरुप देश काल के अनुसार बदलते रहते हैं.
आज हम मानते हैं कि भगवान विष्णु की कल्पना शंख-चक्र-गदा-पद्म के बिना नहीं हो सकती.
अन्य कोई भी चिन्हों में बदलाव आये, तो भी इन प्रतीकों का होना अनिवार्य है. इन
प्रतीकात्मक चिन्हों के विद्यमान होते हुए, कोइ भी उस आकृति को ब्रम्हा या महेश नहीं
समझ सकता. इसी प्रकार हम यह भी मानते हैं की यदि जटा धारी भालचंद्र त्रिशूलधारी आकृति हो तो वह शिवजी
की ही होगी.
परन्तु इस बात पर गौर करें
तो वास्तव में यह सभी प्रतीक चित्रकार और भक्त की कल्पना मात्र हैं, परंपरागत हैं,
एवं लोकाचार के अधीन हैं. पौराणिक साहित्य के आगमन से पूर्व भगवान विष्णु समान जगत
के पालनहार की कल्पना शायद नहीं थी. और यदि थी, तो उनकी आकृति समकालीन समाज के
मानसपटल पर कदाचित श्री हरी विष्णु से भिन्न भी रही होगी.
इस चर्चा का सार यह है की, देवताओं की भाँती रागों की आकृति भी सर्वमान्य
कल्पनाओं के आधार पर होती है. और, इन कल्पनाओं की रूपरेखा हमें समकालीन
प्रतीकात्मक चिन्हों में मिलती है. और समकालीन होने के नाते, यह चिन्ह परिवर्तनशील
हैं.
संबोधन के इस पड़ाव पर हम
स्वीकार कर सकते हैं की, राग तत्त्व निराकार स्वरूप
में सर्वोपरी है, क्योंकि राग तत्व एक स्वर-आयोजन नही है – वह तीव्र भावुकता
की एक चेतना है, जिसके अनुभव के लिये मानव स्वरायोजन का सहारा लेता है. राग तत्व का प्रत्यक्षीकरण संगीतकार समकालीन कल्पनाओं के आधार पर, सर्वमान्य प्रतीकात्मक
चिन्हों के आधार पर करता हैं. इन्हीं चिन्होंके आधार पर राग की पहचान होती है, और
अन्य रागों से उसकी भिन्नता का आभास. परन्तु, जैसे कोई भी अराह्धक देवताओं के
साकार रूप को उनके निराकार स्वरुप तक पहुँचने का माध्यम मानता है, उसी प्रकार,
संगीतकार “इष्ट” राग के सर्वमान्य स्वरुप को उसकी निराकार आकृति के दर्शन पाने का
मध्यम मानता है. “इष्ट” राग का साकार
स्वरुप आराध्य है; परन्तु आराधना का ध्येय उसकी निराकार आकृति है.
इस भावना से उसकी निर्माण
की हुई कलाकृति प्रेरित रहती है. और इस प्रेरणा में ही रसास्वादन रूपी आध्यात्मिक
चेतना का रहस्य छिपा है. इसी कारण, “इष्ट” राग के प्रति शरणागत भाव को अपने संगीत
साहित्य में उत्तम माना गया है.
निराकार और सर्वमान्य
स्वरूपों का सम्बन्ध
रागों की व्यापकता/ विशालता
तथा सीमाओं का उस्ताद विलायत खां साहबने एक बातचीत के दौरान अविस्मरनीय संकेत किया
था, वह आज यहाँ दोहराता हूँ. उन्होंने कहा – “राग कितना बड़ा होता है, उसकी तुम
कल्पना नहीं कर सकते. और तुम्हारे उस्ताद भी नहीं कर सकते.” मैंने पूछा – “खां
साहब, समझाइए, राग कितना बड़ा होता है?” उन्होंने उत्तर दिया – “इस दुनिया में जितने
भी संगीतकार गाना बजाना कर चुके हैं, और जितने संगीतकार पैदा होने के बाकि हैं, उन
सबकी सामूहिक कल्पना से भी बड़ा होता है.
इसीलिए राग की सिर्फ एक झलक भी पाने
के लिये हम तरसते हैं. और, ज़िंदगी में कभी कभार, जिस दिन अल्लाह मेहरबान हो
जाएं, उसी दिन उस का दीदार होता है.” स्वाभाविक रूप से मेरे मन में प्रश्न उठा, और
मैंने कर डाला – “यदि राग इतना बड़ा है, तो उसकी सरहद कहाँ है?” उन्होंने कहा – “हर
राग की सरहद वहां होती है, जहाँ वह किसी और राग की सरहद से टकराता है.”
इस बातचीत से दो तथ्य उभरकर
आए. पहला – कि संगीत की सर्जन प्रक्रिया संगीतकारों के सामूहिक अभिप्राय से
निर्मित राग स्वरुप के अंतर्गत होती है. दूसरा – कि प्रत्येक संगीतकार उस
सर्वमान्य स्वरुप की सीमाओं के विस्तार का प्रयत्न करता है – क्योंकि उसका
प्रेरणास्रोत एक निराकार आकृति है. इन दो प्रक्रियाओं के संयुक्त परिणामतः राग स्वरुप
सदैव परिवर्तनशील रहता है.
राग-तत्व स्वतः एक असीम
और निराकार आकृति ही रहता है. परन्तु कलात्मक उपयोग के लिये, सर्वसम्मति से
संगीतकार उसे सीमाओं में बाँध लेते हैं. इन्ही सीमाओं के कारण प्रत्येक राग की
पहचान बनती है, और अन्य रागों से उसकी भिन्नता का आभास होता है. इस सर्वसम्मत
राग-स्वरुप के आधार पर श्रोताओंसे एक परिचितता का सम्बन्ध बनता है, जो एक श्रोतोंमुख कला (Communicative
art) के लिये आवश्यक है.
कलाकृति में राग स्वरुप
क्या यथार्थ में यह
सर्वमान्य राग स्वरुप (जो स्वतः विशाल है) सुगम और सुलभ हो सकता है? और यदि हो भी सके, तो कलात्मक
रंजकता की दृष्टी से यह वांछनीय होगा? ज़रा
याद कीजिये इंद्रपुत्र अर्जुन की हालत कैसी हुई थी, जब कुरुक्षेत्र के मैदान में
भगवान् श्री कृष्ण से उन्होंने अपने दिव्य स्वरुप के दर्शन कराने का अनुरोध किया
था. उस विराट स्वरुप को गांडीवधारी अर्जुन भी बर्दाश्त नहीं कर पाए थे. उस दिव्य
स्वरुप में सम्भवतः श्री हरी ने उनके सहस्रनाम के सभी १००० वर्णनों का दर्शन
कराया, जो सामूहिक रूप में भयानक थे. यही परिस्थिति रगों के सर्वमान्य
स्वरुप की होगी यदि उसे सामूहिक रूप में एक ही कलाकृति में दर्शाया जाएगा.
इसी लिये, कलाकृति की सर्जन
प्रक्रिया के निबद्ध और अनिबद्ध दोनों संगीतात्मक अंगों में राग-स्वरुप का और भी
संकीर्ण मुख देखते हैं. यह संकीर्णता प्रदान करने का काम प्रबंध और रचना के आधीन
होता है, जिसमे काव्य तत्व, लय तत्व और ताल तत्व भी शामिल होते हैं. प्रबंध से
मेरा संकेत ध्रुवपद तथा ख़याल प्रबंधों तथा इन प्रबंधों के अंग उपांगों की ओर है,
जो आधुनिक संगीत की बुनियाद हैं.
प्रबंधानुसार अंगों पर एक
दृष्टी
इस संबोधन का दृष्टिकोण
स्पष्ट करने के लिये, मैं राग संगीत के निम्नलिखित अंग उपांगों की संक्षेप में
चर्चा करूँगा.
१. ध्रुवपद में आलाप अंग
२. ध्रुवपद अथवा खयाल में पद /
रचना / बंदिश
३. विलंबित खयाल में आलाप अंग
४. खयाल गायकी में तान अंग.
ध्रुवपद तथा खयाल प्रबंधों
की पृष्ठभूमि
पंडित शारंगदेव के संगीत
रत्नाकर (१३वीं शताब्दी) में दो प्रकार के “आलाप्ति गायन” का वर्णन पाया
जाता है. इनके नाम हैं – रागालप्ती तथा रूपकालाप्ति. स्वामी प्रज्ञानानंद
के मतानुसार यह दो गायन प्रकार ८वी अथवा ९वि शताबदी से प्रचलित थे.
राग आलप्ती में आकार तथा निरर्थक
व्यंजनों के उपयोग की प्रथा थी, और उसे ताल-वाद्य संगत के बिना पेश करने का
प्रावधान था. रूपकालाप्ति में ताल-बद्ध काव्यात्मक रचना के अंतर्गत,
ताल-वाद्य संगत के साथ आलाप करने का प्रावधान था. दोनों आलाप्ति प्रकारों में
क्रमशः लय बढाने का रिवाज़ था. ध्रुवपद निष्णात सेलिना थिलेमान का संकेत है कि मुग़ल
काल में रागालप्ती गायन को ध्रुवपद गायकी में सम्मिलित किया गया. यदि रूपकालाप्ति
का वर्णन संगीत रत्नाकर में देखें, तो आज के विलंबित खयाल का समर्थ वर्णन है. आपको
यह तो विदित ही होगा कि मूलतः विलंबित खयाल ही खयाल गायन है. द्रुत खयाल का जन्म
बंदिश-की-ठुमरी की प्रेरणा से शायद १९वी शताब्दि में ही हुआ. इससे पहले विलंबित ख़याल को ही ख़याल माना गया.
हिंदी या संस्कृत शब्द कोशो में आलाप या आलप्ती का अर्थ देखा जाए तो इस प्रकार के भावार्थ मिलते है –
परिचय, बोलना, उच्चारण, बात-चीत , रुदन. इस उल्लेख का तात्पर्य यह है कि आलप्ती की
प्रक्रिया में उत्तेजित अथवा उत्तेजक अभिव्यक्ति का कहीं स्थान निर्धारित हुआ नहीं
दीखता. आलाप – इस शब्द की ध्वनि-मात्र में एक शांत भाव का अनुभव होता है.
निस्संदेह, किसी भी प्रमाण के आधार पर इस शब्द में आज कल के खयाल गायन में
विद्यमान ओलिम्पिक प्रतियोगिता समान आक्रामक वातावरण का संकेत नहीं मिलता.
ध्रुवपद में आलाप अंग
ध्रुवपद का आलाप अंग तीन
उपांगो से प्रस्तुत किया जाता है – विलंबित आलाप, मध्य लय आलाप, और द्रुत आलाप.
तंतु वाद्य संगीत में इसे आलाप, जोड़ झाला भी कहते हैं.
राग तत्व की अराधना की
दृष्टि से, विलंबित आलाप राग संगीत की सरवोच्च उपलब्धी है. वह लय-बद्ध नहीं है,
काव्यधीन नहीं है, तालाधीन नहीं है. इस आलाप की प्रक्रिया पूर्णतया अंतर्मुखी है,
जिसमें संगीतकार निराकार आकृति से, किसी अन्य तत्व के हस्तक्षेप के बिना, आत्मीय
संपर्क बनाकर उसका आह्वान कर सकता है. समकालीन संगीत में संगीतकार को जितनी
स्वतंत्रता ध्रुवपद आलाप ने दी है, उतनी किसी और प्रबंध के अंगों/ उपांगों ने नहीं
दी.
ध्रुवपद के विलंबित आलाप को
आंशिक रूप से प्रबंधाधीन कहा जा सकता है –
स्थाई, अंतरा, संचारी और आभोग, यह चार भागों में उसके क्रमशः विस्तार का प्रावधान
है. यह अनुशासन व्यापक रूप से सर्वमान्य
सवरूप के अवलोकन को अनिवार्य बना देता है.
इस अनुशासन के पालन से, और कलात्मक स्वतंत्रता के उपयोग से, अन्य ( काव्य,
लय, ताल) तत्वों के हस्तक्षेप के बिना सर्वमान्य स्वरुप का सर्वेक्षण किया जाय तो,
उसका भी वेधन करके – उसकी सीमाओं को लाँघ कर -- राग की निराकार आकृति से भी कुछ
आशीर्वाद पाने की संभावना बन जाती है.
ध्रुवपद का मध्यलय आलाप लयाधीन है, इस लिये राग-तत्त्व के आह्वान की दृष्टी से उसका स्तर निम्न कहा
जाएगा. ध्रुवपद के द्रुत आलाप की तुलना ख़याल प्रबंध में तानों से की जा सकती है.
इस उपांग की तरफ हम नज़र कुछ देर से डालेंगे.
ध्रुवपद अथवा खयाल में पद /
रचना / बंदिश
राग तत्व के प्रत्यक्षीकरण
की दृष्टी से हिन्दुस्तानी संगीत में बंदिश का केंद्र-स्थान माना जाएगा. यह इसलिए
कि संगीत सर्जन की अनिबद्ध प्रक्रिया भी बंदिश के इर्द-गिर्द होती है, और उसके
अनुकूल होती है.
आम तौर पे कहा जाता है कि
बंदिश राग का मानचित्र या नक्शा होती है. यह परिभाषा अपर्याप्त है. बंदिश
राग-तत्व, काव्य-तत्व, तथा ताल-तत्व के सम्मिलित प्रभाव से बनती है. काव्य और ताल
दोनों बंदिश के रसोत्पादन में सहभागी है. एस दृष्टी से देखा जाये तो बंदिश राग तत्व
का ही नहीं, ताल और काव्य तत्वों पर भी टिप्पणी करती है. इन तत्वों का प्रभाव
राग-स्वरुप के अवलोकन को कुछ हद तक नियंत्रित करता है.
केवल राग तत्व की दृष्टि से
देखा जाय तो भी यह परिभाषा संतोषजनक नहीं है. इसका प्रमुख कारण यह है कि कोई भी
बंदिश राग के सर्वमान्य रूप को सम्पूर्णतया अंकित नहीं कर सकती. दूसरा कारण यह है
बंदिश में रचनाकार राग स्वरूपकी अपनी समझ व्यक्त करता है. अतैव, कोइ भी बंदिश सर्वमान्य रागस्वरूप का आंशिक नक्शा ही
हो सकती है. तदुपरांत, रचनाकार अपनी कृति पर अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ता है, और
अपनी सौंदर्य दृष्टि का प्रमाण देता है.
हम फिरसे भगवान विष्णुके
रूपों की उपमा लेकर सोचें तो – पहचान के तौर पर प्रत्येक बंदिश में सांकेतिक चिन्ह
ज़रूर मिलेंगे – शंख, चक्र, गदा, पद्म. परन्तु विष्णु के १००० नामों मेंसे शायद १०
ही वर्णन एक बंदिश् में मिलेंगे. उदाहरण मालकौंस राग का लीजिये -- मालकौंस तीनों क्षेत्रों में गाया बजाया जाता
है. परन्तु, आपको प्रचलित बंदिशें या तो पूर्वांग प्रधान मिलेंगी, मध्यांग प्रधान मिलेंगी, या उत्तरांग प्रधान मिलेंगी.
यदि किसी मालकौंस बंदिश की स्थायी तीनों क्षेत्रों में भ्रमण करती है, तो उसे
सुनकर आपको बेचैनी होगी. यह इसलिए कि बंदिश के अनुरूप राग विस्तार और संपूर्ण
अनिबद्ध सर्जन प्रक्रिया भी अस्थिर रहेंगे, और रस-भंग की संभावना बढ़ जाएगी.
इस उल्लेख का तात्पर्य है
कि बंदिश द्वारा राग संगीत की कला सर्वमान्य राग स्वरुप को और भी संकुचित कर देती
है. तथा, बंदिश द्वारा लाई गयी संकीर्णता अनिबद्ध सर्जन को भी यह संकीर्णता प्रदान
करती है.
राग तत्व की दृष्टी से
बंदिश के मुखड़े का ख़ास महत्व होता है क्योंकि निबद्ध और अनिबद्ध के बीच का सम्बन्ध
प्रमुखतया मुखड़ा ही स्थापित करता है. खयाल बंदिशों के मुखड़े में अक्सर एक अनपेक्षित अभिव्यक्ति अथवा वैचित्र्य निर्माण का इरादा नज़र आता है. ज़ाहिर है कि राग के सर्वमान्य स्वरुप से हट कर
ही वैचित्र्य निर्माण हो सकता है. और यही वैचित्र्य राग-विस्तार और तानों पर
प्रभाव अवश्य डालेगा, और बंदिश से बनी राग प्रतिमा को एक अनोखा आकार देगा.
इस विचार श्रृखला से
निष्कर्ष यह निकलता है की, राग के सर्वमान्य स्वरुप के अवलोकन का काम बंदिश का
नहीं है. उसका काम राग, लय, ताल, और काव्य तत्वों का संपादन करनेका है, जिसके
फलस्वरूप वह, स्वतः एक स्वतंत्र कलाकृति होने के अतिरिस्क्त, अनिबद्ध संगीत सर्जन
की प्रक्रिया का भी कलात्मक निर्देशन कर सके.
खयाल गायकी में आलाप
बंदिश प्रस्तुति में
सम्मिलित आलाप की चर्चा सिर्फ खयाल गायकी के अनतर्गत कर रहा हूँ क्योंकि वाद्य
संगीत में हर वाद्य की अपनी विशेषता है, और उसके अनुसार राग-स्वरुप का अनुभव
विशिष्ट होता है.
हम आलाप को खयाल का प्रथम
चरण मानते हैं. परन्तु यदि ख़याल प्रबंध की व्युत्पत्ति को समझें तो आलाप रुपकलाप्ती
का प्रमुख अंग है. खयाल प्रबंध के अंतर्गत आलाप राग-तत्व के आह्वान का प्रमुख
साधन है. इसकी विशेषताओं पर एक नज़र डालें.
१. अनिवार्य रूप से लय-आधीन नहीं
है.
किराना घराने की सामान्य लय (१४-२० मात्रा प्रतिमिनट) में आलाप हो तो
स्वरायोजन लय-मुक्त रहता है. जयपुर- अत्रौली घराने की सामान्य लय (२५-३३ मात्रा
प्रतिमिनट) में आलाप किया जाये तो स्वरायोजन मात्राओं के इर्द-गिर्द चलता हुआ जान
पड़ता है. यदि आगरा घराने की सामान्य लय (३८-४२ मात्रा प्रतिमिनट) में आलाप हो तो
स्वराघात और मात्राओं में सामंजस्य बन जाता है. अर्थात, आलाप लय-आधीन हो
जाता है.
२. अनिवार्य रूप से काव्याधीन
नहीं है
खयाल का आलाप आकार और बोल-आलाप – दोनों प्रकार से किया जा सकता है.
३. आंशिक रूप से तालाधीन है
तालबद्ध रचना के अंतर्गत गाये जाने के कारण, आलाप को समय समय पर रचना के मुखड़े
और ताल के आवर्तनो से सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है.
४. आंशिक रूप से रचनाधीन है
प्रत्येक रचना राग स्वरुप के कुछ पहलुओं को अधिक महत्व देती है, और अन्य
पहलुओं को कम. रसास्वादन हेतु रचनाकार के राग के प्रति विशेष रुझान के अनुकूल अपनी
अनिबद्ध सर्जन क्रिया करनी उचित मानी गयी है.
५. प्रबंधाधीन है
ध्रुवपद के विलंबित आलाप की भांति खयाल के आलाप में भी स्थायी-अंतरा-संचारी-
आभोग की प्रथा है. उत्तम गायकों के विलंबित खयाल में यह चारों उपांग स्पष्ट रूप से
विद्यमान होते हैं, और यह तर्कसंगत भी है. चार उपांगों का आलाप ही राग के वांछनीय स्वरुप का सर्वांगीण अवलोकन कर सकता है, और
रसास्वादन की संभावना को जागृत कर सकता है.
इन विशेषताओं को देख कर यह
कहा जा सकता है की खयाल गायकी का आलाप संगीतकार को विस्तृत स्वतंत्रता देता है.
परन्तु आंशिक आधीनताओं के कारण, राग-तत्व के प्रत्यक्षीकरण की दृष्टी से, ध्रुवपद
के विलंबित आलाप की तुलना में निम्नतर गिना जाएगा.
खयाल गायकी में तान अंग
राग स्वरुप को कलात्मक तथा
द्रुतगामी स्वराघात से अलंकृत करने की क्रिया तो हम तान कहते है. यह एक परिभाषा
है, जिसे आदर्श माना जाता है. तान अंग का यथार्थ काफी समय से बहुचर्चित रहा है.
पंडित अनंत मनोहर जोशी का कहना था – “जहाँ कि खयाल गायकी का आलाप अंग प्रत्येक
राग की विशिष्टता को दर्शाता है, (इसके विपरीत) उसका तान अंग सर्व रागों की समानता
और अभिन्नता का प्रदर्शन है.” एस कथन से प्राध्यापक अशोक रानडे अधिकांश रूप से
सहमत थे. यह धारणा तर्कसंगत क्यों लगती है?
तानों में स्वराघात की चपल
गति के महत्त्वपूर्ण परिणाम होते हैं –अमुक लय के पार, स्वरोच्चार और ताल की
मात्राओं में सामंजस्य बन जाता है. स्वराघात और ताल के विभाजन समक्षनिक बन जाते
हैं. अर्थात, तानों में राग-स्वरुप पूर्णतया लयाधीन बन जाता है. लयाधीन हो जाने के
उपरांत अल्पान्तारिक हो जाता है. जब राग-तत्व को लय तत्व कैद कर ले, और मात्राओं
के बीच अंतर ही न छोड़े, एस परिस्थिती में स्वरों के अल्पत्व- बहुत्व को दर्शाना
असंभव है. तदुपरांत, जब स्वराघात और ताल की मात्राएं सम-क्षणिक हो जाएँ तब विशेष स्वरों का वज़न, अनुपात, प्रमाण, और प्राबल्य
दर्शाना नामुमकिन हो जाता है. और यही विशेषताएँ तो किसी भी राग को भिन्नता प्रदान
करती हैं. उदाहरण के तौर पर सोचिये – अति-चपल सपाट तान में मुल्तानी और तोड़ी रगों के
अवरोह में आपको क्या अंतर दिखेगा?
सोचने की बात है, की हमारे
भारतीय Scale को हम “सप्तक” क्यों कहते हैं,
जबकि पाश्चात्य संगीत में उसे Octave (८ स्वर की श्रृंखला) कहते
हैं. इसका कारण यह है कि हमारे संगीत की सर्जन प्रक्रिया स्वरों के बीच के सात
अंतरों में होती है, और न कि स्थायी स्वरों पर. तान अंग में स्वरों और मात्राओं के
बीच कोई अंतर नहीं रह गया तो, उसमें राग स्वरुप का दर्शन कैसे होगा?
इन विशिष्टताओं के कारण तान
अंग का महत्त्व राग-तत्व के प्रत्यक्षीकरण में सीमित होता है. यदि ऐसा है, तो तान
अंग की संगीतात्मक उपयोगिता क्या है? मेरी समझ के अनुसार तान अंग को उसकी उपयोगिता
कलाकार की कल्पनाशक्ति और कंठ की चपल निपुणता से मिलती है. अंग्रेज़ी में प्रायः
इसे dazzling artistry का वर्णन दिया जाता है. इस बात पर गौर किया जाये कि इस
वर्णन में dazzling और artistry दोनों हि पहलुओं का समान महत्व
है.
इस विषय पर सूक्ष्म दृष्टि
डालने की आवश्यकता है: तानों के मुख्यतया तीन प्रकार गिने जा सकते हैं और उनके
योगदान का क्रमशः इस प्रकार मुल्यांकन किया जा सकता है:
१. रागांग की तानें: राग के चलन से अनुशासित
राग-तत्व की दृष्टि से यह उत्तम प्रकार की तानें गिनी जाएंगी. राग के चलन के
अनुसार इसमें कल्पना-शक्ति और कंठ की चपल निपुणता दिखाने का पर्याप्त अवसर मिल
सकता है. यह देखा गया है की महान संगीतकार अति-चपल लय में भी रागांग तानो का उपयोग
करते समय अल्पत्व-बहुत्व का भी पालन करते हैं. राग-तत्व के प्रत्यक्षीकरण की
प्रक्रिया में इन तानों का सर्वोत्तम
स्थान गिना जाएगा.
२. अलंकार की तानें: (geometric,
symmetric, ascending-descending, kaleidoscopic)
इन तानों में कल्पना शक्ति के लिये कोइ स्थान नहीं है. राग स्वरुप से भी इन
तानों का नाता प्रायः संदिग्ध रहता है. कंठ की चपल निपुणता के अतिरिक्त इन में कोई संगीतात्मक
गुण प्रायः नहीं प्रदर्शित होता. राग-तत्व के प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में इन
तानों का न्यूनतम स्थान गिना जाएगा.
३. मिश्र प्रकार की तानें:
इन तानों में सर्व प्रकार के स्वर-आयोजन का प्रयोग होता. इनमें कल्पना शक्ति
का प्रामुख्य रहता है, तथा कंठ की चपल निपुणता से एक चमत्कृति का वातावरण निर्मित होता
है. राग-तत्व के प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में इन तानों का स्थान मध्यम गिना
जाएगा.
इस संबोधन का भावार्थ
राग तत्व एक असीम निराकार
आकृति है. उसके अप्रत्यक्ष स्वरुप में न ही मानव मस्तिष्क उसे समझ सकता है, और न
ही मानव ह्रदय उसका आनंद ले सकता है. इस उद्देश्यसे संगीतकार राग तत्त्व का
कलात्मक प्रत्यक्षीकरण करता है. इस प्रक्रिया के अंतर्गत वह राग-तत्व को विविध
आधीन्ताओं में बांधता है. स्वाभाविक है की आधीनताओं की जकड जितनी बढ़ेगी, उतना राग
का प्रत्यक्ष स्वरुप सुगम, सुलभ, और आनंद दायक होता जायेगा. अर्थात कलाकार के
प्रत्येक संकल्प का कलाकृति की रसास्वादन क्षमता पर प्रभाव पड़ता है. इस कारण,
अंततोगत्वा, हमें किसी भी कलाकृति के चरित्र को समझने के लिये कुछ दार्शनिक तथ्यों
का सहारा लेना होगा.
इस दिशा में विचार करने की
प्रेरणा मुझे प्राध्यापक अशोक रानडे से मिली थी. उन्होंने संकेत किया था कि राग
संगीत के विषयमें सोचते या लिखते समय हमें कलाकार के अपनी कला के साथ सम्बन्ध पर
नज़र अवश्य डालनी चाहिए. इस संकेत पर चिंतन से यह आभास हुआ, की यह सम्बन्ध तीन
प्रकार का हो सकता है –
१. सात्विक
२. राजसिक
३. तामसिक
अभी तक की चर्चा हम एक सात्विक
सन्दर्भ में कर रहे थे, जिसके अंतर्गत संगीतकार निराकार राग-तत्व का शरणागत भाव से
आह्वान करता है. यही भावना उसके भावानुप्रवेश में सहायक होती है, और श्रोताओं को
रसास्वादन की चेतना प्रदान कर सकती है. इसी परिपेक्ष्य में यदि हम राजसिक
वृत्ति के संगीत की कल्पना करें तो हमें कलाकार राग-तत्व से प्रभुत्व की आकांक्षा
दर्शाता नज़र आएगा. ऐसे सम्बन्ध द्वारा निर्मित कलाकृति में कलाकार के भावानुप्रवेश
की संभावना नहिवत रहेगी, और संगीत का अनुभव श्रोताओं के लिये बौध्दिक – और कदाचित अभित्रास्गीय
(intimidating/
oppressive) -- हो सकता है. इसी विचार प्रवाह में हम तामसिक वृत्ति के संगीत पर एक
नज़र डालें. तामसिक प्रकृति की सर्जन प्रक्रिया पूर्णतया बहिर्मुखी होगी, और उसका स्वाभाविक रुझान लालित्य, इन्द्रिय संतोष तथा मनोरंजन की ओर होगा.
मेरे गुरूजी, पंडित अरविन्द
पारीख इन तीन वृत्तियों को – (१) भक्तिमार्गी, (२) ज्ञानमार्गी और
(३) वाम मार्गी की संज्ञा देते हैं. कहने का तात्पर्य एक ही है – राग संगीत
संकल्पाधीन निर्मित होता है, और उसके निर्माण में संगीतकार के व्यक्तित्व का दर्शन
होता है.
इस मक़ाम पर प्रश्न उठता है
की – क्या इन तीनों वृत्तियों से उत्पन्न संगीत को हम “शास्त्रीय” या “राग
संगीत” में समान दर्जा दे सकते हैं?
शास्त्रीय संगीत में सिद्ध संगीतकार
को कला जगत में ऊंचा स्थान इसलिए मिलता है क्योंकि वह सर्वमान्य राग स्वरुप की
सीमा को लाँघ कर निराकार आकृति से एक विशिष्ट अवतरण करवाने की क्षमता रखता है. जब
हम महान संगीतकार के चरण स्पर्श करते हैं, तो हम उनकी उस शरणागत भावना को नमन करते
हैं जो हमें निराकार की एक झलक दिखा सकती हैं – चाहे वह केवल क्षण भर के लिये
क्यों न हो.
इस सन्दर्भ में, उस्ताद
विलायत खां का हहृदयोद्गार फिर एक बार याद करें:
– “राग की सिर्फ एक झलक भी
पाने के लिये हम तरसते हैं. और, ज़िंदगी
में कभी कभार, जिस दिन अल्लाह मेहरबान हो जाएं, उसी दिन उस का दीदार होता है.”
जैसा की एक लेखक ने कहा है –
The great artist
is great because he has a hotline to God.
(c) Deepak S. Raja 2015
Paper presented at the Vasantotsav Vimarsh, in Pune on January 15, 2015.