Wednesday, January 9, 2013

Hindustani Music Today: Book Review by Kuldeep Kumar in "SANGNA"


हिंदुस्तानी म्यूज़िक टुडे, दीपक एस. राजा, डीके प्रिंटवर्ल्ड, पृ. 138, मू. 320 रु.

समकालीन हिंदुस्तानी संगीत का परिदृश्य
कुलदीप कुमार

दीपक एस. राजा का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) करने के बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बिजिनेस मेनेजमेंट, अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया, बिजिनेस इंडिया पत्रिका के संपादक और इंडियन न्यूज़पेपर सोसाइटी के महासचिव रहे, इमदादखानी घराने के पंडित पुलिन देब बर्मन एवं पंडित अरविंद पारिख जैसे संगीतकारों से सितार और सुरबहार बजाना सीखा, और जयपुर घराने की गायिका धोंडुताई कुलकर्णी से खयाल की शिक्षा ली। साथ-साथ उन्होंने संगीत पर लेख और पुस्तकें लिखना भी शुरू किया और आज उनकी गिनती देश के महत्वपूर्ण संगीतशास्त्रियों में की जाती है।
इस वर्ष जनवरी में डीके प्रिंटवर्ल्ड ने उनकी ताज़ातरीन किताब हिंदुस्तानी म्यूज़िक टुडेप्रकाशित की है। बहुत समय से संगीत के जानकार यह मुद्दा उठाते रहे हैं कि क्या राग-संगीत को शास्त्रीय, अर्ध- या उप-शास्त्रीय और सुगम संगीत जैसी संज्ञाओं से अभिहित किया जाना चाहिए? पुस्तक के पहले अध्याय में दीपक राजा ने इसी प्रश्न पर विचार किया है और शास्त्रीय संगीत की तुलना में कला संगीत नाम को बेहतर माना है। उनका यह कहना सही है कि राग-संगीत को पाश्चात्य संगीतशास्त्रीय चिंतन के प्रभाव के कारण ही क्लासिकल या शास्त्रीय संगीत कहा जाने लगा जबकि स्वयं पश्चिम में इस संज्ञा पर विवाद है। शुरू में इसे बारोक युग के अंत और रोमांटिक युग के आरंभ के बीच रचा गया संगीत माना जाता था और बेठोफेन, मोत्ज़ार्ट तथा हेडेन जैसे संगीतकारों की रचनाओं के लिए इस नाम का इस्तेमाल होता था लेकिन अब इसकी परिधि में पिछले 400-500 वर्षों के संगीत को समेट लिया गया है। दीपक राजा कलात्मक विविधता और वैयक्तिक रचनाशीलता वाले इस संगीत को कला संगीत मानते हैं। यहाँ यह उल्लेख अनुचित न होगा कि हमारी संगीत परंपरा में इस प्रकार के संगीत को मार्गी और इससे इतर लोकप्रचलित संगीत को देशी कहा जाता था। मार्गी संगीत से यह संकेत भी मिलता है कि इस संगीत के सृजन में संगीतकार एक विशेष पद्धति या मार्ग का अनुसरण करता है और उसे अपनी सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए पूरी स्वतन्त्रता तो उपलब्ध है, पर अराजकता नहीं। यदि दीपक राजा इस पारंपरिक नामकरण और इसकी उपयुक्तता या अनुपयुक्तता पर भी विचार करते तो शायद इस बिन्दु पर कुछ और प्रकाश पड़ सकता था।
इस पुस्तक के केंद्र में ऐसे श्रोता हैं जो हमारे शास्त्रीय या कला या मार्गी संगीत में गंभीर दिलचस्पी तो रखते हैं पर उसके आस्वादन के लिए आवश्यक उपकरण और जानकारी से लैस नहीं हैं। लेखक ऐसे श्रोताओं से ही मुखातिब है और इससे इस पुस्तक की उपादेयता एवं प्रासंगिकता बहुत बढ़ गई है। पुस्तक के दूसरे अध्याय में रागानुभव को हम तक पहुंचाने वाले उपादानों के बारे में जानकारी दी गई है और इस प्रक्रिया में संगीत के ध्रुपद, खयाल और ठुमरी जैसे रूपों और राग, बंदिश तथा ताल के स्वरूप और उनके महत्व को स्पष्ट किया गया है और समझाया गया है कि किस प्रकार से कोई भी गायक या वादक केवल राग के चौखटे में ही नहीं, बंदिश और ताल की सीमाओं में भी बंधा रहकर ही अपने गायन या वादन की प्रस्तुति कर सकता है। इस संदर्भ में लेखक ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि राग की तरह ही ताल का भी अपना विशेष मूड होता है और उसके मूड को ध्यान में रखकर ही कलाकार को उसे बरतना होता है।
जैसाकि शीर्षक से ही स्पष्ट हैं, मध्यरात्रि में भैरव इस पुस्तक का बेहद विचारोत्तेजक और विवादास्पद अध्याय है। यह खुशी की बात है कि दीपक राजा ने इस विषय पर लेखनी उठाई है क्योंकि उनके विचारों से भले ही असहमति हो, लेकिन इस विषय के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता। अब समय आ गया है जब संगीतकारों और संगीतशास्त्रियों को एक साथ बैठकर इस पर चर्चा करनी चाहिए और एक प्रकार की आम सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए कि क्या राग-समय सिद्धान्त का पालन करना अनिवार्य है या नई परिस्थितियों में उसे खारिज करना ही उचित होगा। अक्सर संगीत के कार्यक्रमों में गायक या वादक अमुक राग को अमुक समय ही गाने-बजाने के नियम में ढील बरतने लगे हैं और धीरे-धीरे अराजकता की सी स्थिति बनती जा रही है। ऐसे में इस मुद्दे के सभी पहलुओं पर विचार करके एक सर्वानुमति तैयार करने की बेहद ज़रूरत है। दीपक राजा का विचार है कि दक्षिण भारतीय या कर्नाटक शैली की तरह ही उत्तर भारतीय या हिंदुस्तानी शैली में भी रागों को उनके निर्धारित समय पर प्रस्तुत करने की अनिवार्यता समाप्त होनी चाहिए। उन्होंने दिन के समय, सूर्य के प्रकाश, मौसम, राग के रसभाव आदि अनेक कारकों के साथ रागों का वैज्ञानिक दृष्टि से संबंध निर्धारित करने की कोशिश की है और यह निष्कर्ष निकाला है कि बदली परिस्थितियों में, जब अधिकांश संगीत प्रस्तुतियाँ शाम और रात के समय होती हैं और सुबह के राग सुनने में ही नहीं आते, मध्यरात्रि के समय भैरव गाने-बजाने पर नाक-भौं न सिकोड़ी जाये। उनका यह निष्कर्ष भी है कि रागविशेष को एक विशिष्ट कालावधि में ही गाने-बजाने की बाध्यता का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
वैज्ञानिक आधार हो या न हो, यह तो स्पष्ट है कि सुबह आँख खुलने के क्षण जो हमारी मनःस्थिति होती है, वह रात में उस समय नहीं जब आँखें झपने वाली होती हैं। सुबह दस बजे और रात के दस बजे हमारा शरीर और मन एक जैसा महसूस नहीं करते। फिर, परंपरा ने रागों के साथ अनेक अनुषंग जोड़ दिये हैं और हमारे मन-मस्तिष्क में यह बात गहराई के साथ बैठ गई है कि सुबह दस बजे दरबारी सुनने पर उसका वह असर नहीं होता तो उसे मध्यरात्रि के आसपास सुनने पर होता है। इसके पीछे संभवतः हमारे मन का अनुकूलन या कन्डीशनिंग ही है। उसके पीछे वैज्ञानिक कारण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। उसी तरह जैसे बसंत के साथ पीला रंग जुड़ गया है और बसंत पंचमी के दिन पीले कपड़े पहनकर अच्छा लगता है। यूं पीले कपड़े पहनने की बाध्यता नहीं है। दीपक राजा ने इस मुद्दे पर विचार करके भविष्य में इस पर और विचार-विमर्श किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया है। इस दृष्टि से यह स्वागतयोग्य और पठनीय है। यहाँ यह बता दें कि स्वयं उनके इमदादखानी घराने के श्रेष्ठतम रत्न उस्ताद विलायत खां रागों को उनके निर्धारित समय पर ही गाने-बजाने के हामी थे।
पुस्तक में घरानों और उनके भविष्य पर भी एक अध्याय है जिसमें घरानों में शैलियों के बनने और पुष्ट होने की प्रक्रिया का बहुत सुंदर विवेचन किया गया है। लेखक का निष्कर्ष है कि अब घरानों के बीच बहुत अधिक आदान-प्रदान हो रहा है और शैलियाँ आपस में घुलमिल रही हैं। अब घराना कुनबे की जगह शैली का ही अधिक बोध कराता है। लेकिन उनका यह निष्कर्ष पूरी तरह सही नहीं लगता कि घरानों में जो क्लोनिंग यानि नकल होती थी, घराना प्रणाली के कमजोर पड़ने के कारण अब वह समाप्त हो गई है। वास्तविकता यह है कि अब रिकार्डिंग्स उपलब्ध होने के कारण कोई भी किसी की भी नकल करने के लिए स्वतंत्र है, बिना उससे सीखे। नाम लिए बगैर कहा जा सकता है कि इस समय एकाध कुमार गंधर्व और कई भीमसेन जोशी, निखिल बैनर्जी और विलायत खां संगीत समारोहों में गा-बजा रहे हैं।
पुस्तक में खयाल, ध्रुपद, ठुमरी और टप्पा पर स्वतंत्र अध्याय हैं जो अत्यंत उपयोगी जानकारी और सूक्ष्म विश्लेषण के कारण बार-बार पढ़े जाने की मांग करते हैं। लेकिन टप्पे पर अध्याय में ग्वालियर घराने में टप्पे की स्वीकार्यता की चर्चा के दौरान अपने टप्पे और टप्प-खयाल के लिए विख्यात दिग्गज खयाल गायक कृष्णराव शंकर पंडित का उल्लेख न होना कुछ अजीब लगा। लेखक की यह टिप्पणी बिलकुल सटीक है कि किराना और जयपुर-अतरौली घरानों ने टप्पे पर ध्यान नहीं दिया (हालांकि मल्लिकार्जुन मंसूर कभी-कभी टप्पा भी गाया करते थे, शायद ग्वालियर गायकी में हुई शुरुआती तालीम के असर में)।  लेकिन यह समझ में नहीं आया कि लेखक ने यह निष्कर्ष किस आधार पर निकाला है कि ग्वालियर घराने के कई कलाकारों के आगरा घराने की ओर उन्मुख होने के कारण उसमें टप्पगायन की परंपरा क्षीण होती गई। आगरे के असर में ओतप्रोत बालासाहब पूछवाले अच्छा-खासा टप्पा गाते थे, और अक्सर गाते थे। इसी तरह यह निष्कर्ष भी गले से नहीं उतरता कि अपनी चंचल प्रकृति के कारण टप्पे का भविष्य ठुमरी की तुलना में अधिक उज्ज्वल है जबकि वास्तविकता यह है, और लेखक ने उसे स्वयं स्वीकार किया है, कि इस समय टप्पा गाने वालों की संख्या बेहद कम है। लक्ष्मण कृष्णराव पंडित और मालिनी राजुरकर इस समय टप्पे के सर्वाधिक प्रामाणिक गायक हैं और लेखक ने इस संदर्भ में उनका नामोल्लेख भी किया है। अकेली मंजरी आसनारे-केलकर के टप्पागायन को अपनाने से टप्पे के भविष्य का अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वह भी अपनी सार्वजनिक प्रस्तुतियों में अक्सर टप्पा नहीं गातीं।
क्योंकि लेखक स्वयं सितार और सुरबहार के सिद्धहस्त वादक हैं, इसलिए इस पुस्तक में आजकल प्रचलित सभी वाद्य-यंत्रों पर अलग-अलग अध्यायों में बहुत संक्षेप में लेकिन विषय के भीतर गहरी पैठ के साथ जानकारी दी गई है जो पुस्तक में चार-चाँद लगा देती है। तानपूरे को अक्सर श्रोता फालतू का तामझाम समझते हैं लेकिन तानपूरे और स्वरमण्डल पर एक पृथक अध्याय लिखकर दीपक राजा ने हमारे कला-संगीत में आधार-स्वर के महत्व और उसकी उत्पत्ति में तानपूरे की भूमिका पर बहुत खूबसूरती के साथ प्रकाश डाला है। अन्य वाद्ययंत्रों के बारे में जानकारी तो अन्यत्र भी मिल सकती है, पर तानपूरे और स्वरमण्डल का जैसा विवरण और विश्लेषण दीपक राजा ने किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस अध्याय को पढ़ना एक सांगीतिक अनुभव से गुजरने जैसा ही है।

इस प्रकार की पुस्तकें जहां सामान्य श्रोता की जानकारी और समझ में इजाफा करती हैं, वहीं विशेषज्ञों के लिए भी अनेक बिन्दुओं पर विचार करने के लिए सामग्री उपलब्ध कराती हैं। इस पुस्तक की विशेषता है कि यह संगीत की भारीभरकम तकनीकी शब्दावली से पाठक को आतंकित करने के बजाय उसकी जिज्ञासावृत्ति को उत्तेजित करती हुई चलती है और इस क्रम में उसे सिखाती है कि वह हिन्दुस्तानी कला-संगीत को किस तरह सुने और समझे। दीपक राजा इस प्रयत्न के लिए साधुवाद के पात्र हैं।