Sunday, September 21, 2014

Vasantrao Deshpande Award. January 19, 2014. Acceptance speech


 Vidwan Vikku Vinayakram conferring the award

डॉक्टर वसंतराव देशपांडे स्मृति सम्मान जो मुझे आज प्रदान किया गया है, उसके लिये मैं वसंतराव देशपांडे प्रतिष्ठान के विश्वस्तों का हृदयपूर्वक आभार मानता हूँ.

जहाँ ज्ञान रूपी गंगा का संगम कला रूपी यमुनासे होता है, वहां सरस्वती स्वेच्छासे अवतरित होती है. उस स्थान को हम प्रयागराज कहते हैं. ऐसेही प्रयागराज थे पंडित वसंतराव जी. उनकी स्मृतिमें ऐसे सम्मानका स्थापित होना सर्वथा उचित है. परन्तु वसंतोत्सव के अंतर्गत जाहिर सभा में इस विशाल जनसमुदायकी उपस्थितीमें इस सम्मानसे मुझे आभूषित किया जाना एक असाधारण घटना है.

संगीतकारोंका सम्मान ऐसी सभाओंमें प्रायः होता है, क्योंकि वे जनसाधारणका मनोरंजन करते हैं. साहित्यकारोंका भी इसी कारण सार्वजनिक सम्मान होता है. परन्तु, एक संगीतज्ञका कार्य साधारनतया न जनसाधारण तक पहूँचता है, और न ही मनोरंजन करता है. उसकी शक्सियतका दायरा संगीतज्ञोंकी जमात तकही सीमित होता है. अपितु, आजके प्रसंगका यही निष्कर्ष निकालना होगा कि  मेरा कार्य अंशतः रूपसे विद्वत्समाज तथा रसिकसमाज दोनों तक पहुँच पाया है. इसका श्रेय में उन प्रेरणा स्रोतों और पारिबलों को देना चाहूँगा जिनके कारण यह संभव हुआ है. उन्हीकी बदौलत आज मेरा कार्य आपके सम्मानके काबिल हुआ है.
Deepak Raja: acceptance speech

संगीत जगतमें मैंने जो उपलब्धियां हासिल की हैं, उसके कई पक्ष हैं. उनमेसे कुछ प्रमुख पक्षोंका आज संक्षेपमें उल्लेख करना मेरे लिए उचित होगा.

प्रथम है कला पक्ष, या संगीतकी सर्जन प्रक्रिया का पक्ष. इस प्रक्रिया में हमें राग तत्त्व तथा उसके प्रत्यक्षीकरण की समझ हासिल होती है। यह समझ हमें हमारे गुरुजनोंसे प्राप्त होती  है. आज मै मेरे उन गुरुजनों को आदरपूर्वक नमन करता हूँ जिन्होंने मुझे ५ वर्ष की उम्र से आज तक विद्यादान के योग्य समझा. क्रमशः, दिल्लीके श्री चन्द्रकान्त गन्धर्व, पुणेके उस्ताद उस्मान खान, बम्बईके श्री पुलिन देव बर्मन, और बम्बईके पंडित अरविन्द पारीख से मैंने सितार तथा सुरबहार की शिक्षा ली. तदुपरांत, मैंने ख़याल गायकी की तालीम बम्बईमे विदूषी धोंदुताई कुलकर्णीसे  ली. विद्या के अलावा गुरुजनोंका और गुरुपरिवारोंका प्रेम भी अपनी संस्कृतिमे बड़ी एहमियत रखता है. आज मेरेलिए गर्वकी बात है कि इस समारोह में आज मेरे गुरुपरिवारों का भी प्रतिनिधित्व बहुत संतोषजनक है. धोन्दुताईजी की वरिष्ट शिष्या और प्रख्यात लेखिका, नमिता देविदयाल, तथा उस्ताद विलायत खान के साहबजादे, हिदायत खान साहब आज बम्बईसे इस सभामें शामिल होने मेरे साथ आए हैं. और, मेरे दिवंगत गुरु, बर्मन साहब के पुणे स्थित पौत्र, आदित्य देशमुख भी आज इस सभा में हाज़िर हैं. गुरु परिवारका ऐसा प्रेम बहुत खुशनसीब को ही मिलता है, और प्रेरणाका अद्वितीय स्रोत बना रहता है.

दूसरा है ज्ञान पक्ष. जिसे भी संगीत शास्त्र के विषय को समझना हो उसे, बीसवीं शताब्दीके युगप्रवर्तक संगीतज्ञों के कार्य का अध्ययन तो करना ही होता है. परन्तु, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समकालीन समाजको यदि संबोधित करना हो तो आधुनिक विचारधाराओं से अवगत होना आवश्यक हो जाता है. इस सन्दर्भमें मुझे संगीत जगतके दो महान बुद्द्धिजीवियोंका व्यक्तिगत मार्गदर्शन मिला. दिल्ली विश्वविद्यालयमें सौन्दर्य शास्त्र के प्राध्यापक और शास्त्रीय संगीतके प्रखर विद्वान, डॉक्टर सुशील कुमार सक्सेना लगभग ५० वर्षों तक मेरे सांगीतिक जीवनमे रूचि लेते रहे, और मेरा मार्गदर्शन करते रहे. उनके आलावा, प्राध्यापक अशोक रानडेने भी लगभग २० वर्षोंतक मेरे कार्य का मार्गदर्शन किया. इन महानुभावोंने मुझे संगीत के प्रति एक आधुनिक नज़रिया प्रदान किया.

तीसरा है श्रवण पक्ष. हिन्दुस्तानी संगीत के किसी भी पहलु पर यदि आत्मविशवास के साथ कुछ कहना हो तो उसकी परिवर्तनशीलता और उसके वैविध्य को समझे बिना कहना असंभव है. परन्तु, साथ ही साथ, इस परिवर्तनशीलता में छिपे स्थायित्व, और इसके वैविध्य में छिपी समानता को समझे बिना भी इस परम्परा के किसी भी पहलु पर टिप्पणी नही हो सकती. अर्थात, एक संगीतज्ञ ने कितना और कैसा संगीत सुना है, उसी अनुपात में उसके दृष्टिकोण या अभिप्राय का सम्मान होता है. इस दृष्टी से, अपनी युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में प्रत्यक्ष सुना गया संगीत किसी भी संगीतज्ञ के लिये पर्याप्त नहीं होता. सन १९०२ में शास्त्रीय संगीत का ध्वनिमुद्रण आरंभ हुआ. तबसे, लाखों घंटों का शास्त्रीय संगीत मुद्रित हो चूका है. इस पूर्ण खजाने का किसीको भी उपलब्ध होना असंभव है. सदभाग्यवश, मेरे कार्यमें मेरे कुछ संगीत-प्रेमी मित्रों ने कल्पनातीत सहयोग दिया. उनके ध्वनि-मुद्रिका संग्रहों से मुझे पिछले २० वर्षों में लगभग ३५०० घंटों से ज्यादा संगीत का अध्ययन करनेके लिये मिला. इन मित्रों का  मैं आज श्रद्धापूर्वक आभार मानना चाहता हूँ. वे हैं: बमबईके श्री किशोर मर्चेंट, अहमदाबाद के श्री भारतेंदु जानी, और नडियाद (गुजरात) के प्राध्यापक रोहित देसाई. इन मित्रों की सद्भावना के बिना मेरा लेखन शुष्क रहता.

संगीत समालोचन का चौथा पक्ष है अंतःकरण पक्ष: प्राध्यापक रानडेने इस पहलु से मुझे अवगत कराया था. उनका कहना था की जब भी हम हिन्दुस्तानी संगीतके बारे में कुछ भी कहते या लिखते हैं, तब हम संगीतकार का अपनी कला के साथ रिश्ता कैसा है, इस तथ्य को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते. इस विचार का महत्व मुझे तब समझमे आने लगा, जब मैंने एक के बाद एक संगीतकारों की व्यक्तिगत मुलाकातें लेना आरंभ किया. इस अनुभवके आधार पर मुझे तीन प्रमुख वृत्तियों के दर्शन हुए, जो भारतीय विचार प्रणाली से तर्कसंगत हैं. नवोदित कलाकारों से लेकर दिग्गज कलाकारों से बातचीत से यह आभास हुआ की एक संगीतकार का उसकी कला से रिश्ता सात्विक हो सकता है, राजसिक हो सकता है, अथवा तामसिक हो सकता है. किसी भी वृत्ति का कलाकार सफल संगीतकार हो सकता है. परन्तु , हर वृत्ति की तासीर अलग होगी; खुशबू अनोखी होगी।  तदुपरांत, यह भी देखा गया है की एक ही कलाकार के जीवन में अलग अलग दौर पर यह वृत्तियाँ अलग अलग शक्तिसे प्रतिबिंबित हो सकती हैं. एक संगीतज्ञ की दृष्टी में यह पहलु प्रायः सार्वजनिक चर्चा का विषय न होकर सिर्फ समझने का विषय हो सकता है. परन्तु, इसका मुल्यांकन किसीभी कलाकार की सांगीतिक प्रतिभा को समझने के लिये महत्त्वपूर्ण है.

मेरे कार्य का पांचवा पक्ष है प्रकाशन पक्ष. एक संगीतज्ञ की हैसियत से मैंने प्रथम कार्य १९९० के आसपास चेन्नई से प्रकाशित मासिक, श्रुति, के संपादक श्री पत्ताभिरमण के प्रोत्साहन से किया. तत्पश्चात, १९९२ मे न्यू यॉर्क स्थित इंडिया आर्काइव म्यूजिक कंपनी ने मुझे उनके द्वारा प्रकाशित ध्वनिमुद्रिकाओं पर टिप्पणियां लिखने का कार्य सौंपा. १९९२ और २००५ के बीच १०० ध्वनिमुद्रिकाओं पर टिप्पणियां लिखी गयी. प्रत्येक टिप्पणी ८००० से १०,००० शब्दों की थी. सन २००५ में श्रुतिके संपादक और इंडिया आर्काइव म्यूजिक कंपनी के मालिकने मुझे मेरे अनुसंधानको पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की अनुमति दे दी. जब मेरी पहली पुस्तक की प्रतिलिपि तैयार हो गयी, तब, सौन्दर्य शास्त्रविद, प्राध्यापक  सुशील कुमार सक्सेना ने उसके प्रकाशन की सिफारिश उनके प्रकाशक, श्री सुशील मित्तल से की. श्री मित्तल के साथ मेरा सम्बन्ध इतना सदृढ़ हो चूका है, की आज तक उन्होंने मेरी लिखित तीन पुस्तकें प्रकाशित की हैं, और चौथी पुस्तक का कामभी आरंभ कर दिया है.

मेरी मूल शिक्षा बिज़नस मैनेजमेंट की हुई. आधे से ज्यादा कार्यकाल व्यवसायिक गतिविधिओयों में बीता. इसके बावजूद, आज जाहिर सभामे एक संगीतज्ञ की हैसियतसे मेरा आपने सम्मान किया. यह सब माता सरस्वती की कृपा के बिना होना असंभव था. उन्हीके आशीर्वाद से संगीतके विभिन्न पक्षों का मुझे ज्ञान मिला, और उस ज्ञानको, मेरी समझके अनुरूप, सभ्य समाज के समक्ष प्रस्तुत करनेका अवसर प्राप्त हुआ. माता सरस्वती के उन सर्व सेवकों का मैं आज आभार मानता हूँ जिन्होंने मेरे इस कार्य को संभव बनाया, और एक बार फिर उन सब सेवकों की ओरसे इस सन्मान को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ.

© Deepak S. Raja 2014